Sunday, December 22, 2024

 [24/11, 1:04 pm] Brij Khandelwal, PR/Media: November 26

National Milk Day is celebrated to honour  the birth anniversary of Dr. Verghese Kurien, the "Father of the White Revolution in India," highlighting the achievement and importance of the dairy sector in our country

_____________________________

कहां से आ रहा है इतना दूध?

भारत के डेयरी उद्योग का आधुनिकीकरण गौ पालकों को सशक्त करेगा


बृज खंडेलवाल द्वारा 


कभी भारत में दूध की नदियां बहती थीं। ब्रज भूमि कृष्ण कन्हैया की माखन, दही, छाछ की लीलाओं से गुंजित था।

दूध आज फिर चर्चा में है, नकली दूध से देवी देवताओं का अभिषेक हो रहा है, दूध की परिक्रमा लग रही है। रासायनिक जहरों से नकली मिलावटी, पनीर, खोया, मिठाई बना कर लोगों की सेहत से खिलवाड़ हो रहा है।

बहरहाल, दुग्ध क्रांति के जनक वर्गीज कुरियन  के नेतृत्व में चलाए गए ऑपरेशन फ्लड की बदौलत श्वेत क्रांति से भारत में दुग्ध उत्पादन में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है। आज पूरा भारत पीता है अमूल का दूध।

भारत की विशाल दुधारू मवेशी आबादी, जिसमें लगभग 300 मिलियन गाय और भैंस शामिल हैं, एक विरोधाभास भी प्रस्तुत करती है। एक ओर, देश का डेयरी उद्योग दुनिया में सबसे बड़ा है, जो सालाना 210 मिलियन मीट्रिक टन से अधिक दूध का उत्पादन करता है। दूसरी ओर, इस उद्योग को महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जो इसकी स्थिरता और डेयरी किसानों की आजीविका को खतरे में डालती हैं।

दूध की कीमतों में उतार-चढ़ाव, उत्पादन लागत में वृद्धि और पौधों पर आधारित विकल्पों से प्रतिस्पर्धा जैसे आर्थिक दबावों ने डेयरी किसानों की लाभप्रदता पर भारी असर डाला है। मूल्य स्थिरीकरण कार्यक्रमों को लागू करना, उत्पाद पेशकशों में विविधता लाना और सहकारी विपणन रणनीतियों का समर्थन करना सौदेबाजी की शक्ति को मजबूत करने में मदद कर सकता है, एक डेयरी एक्सपर्ट कहते हैं।

हालांकि, डेयरी उद्योग के पर्यावरणीय प्रभाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, जल उपयोग और भूमि क्षरण सभी महत्वपूर्ण चिंताएँ हैं। अपशिष्ट प्रबंधन और पुनर्चक्रण के लिए सर्वोत्तम प्रथाओं को प्रोत्साहित करना, संधारणीय कृषि प्रथाओं में अनुसंधान को बढ़ावा देना और कार्बन क्रेडिट और संधारणीय प्रमाणन के लिए पहलों का समर्थन करना इन मुद्दों को कम करने में मदद कर सकता है।

इसके अलावा, श्रम की कमी और पशु स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ डेयरी उद्योग के सामने आने वाली चुनौतियों को और बढ़ा देती हैं।  

भारत में दूध उद्योग को उन्नत और आधुनिक बनाने के लिए, डेयरी मूल्य श्रृंखला के विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हुए एक व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। विशेषज्ञ दक्षता, स्वच्छता और दूध की गुणवत्ता में सुधार के लिए स्वचालित दूध देने की प्रणाली को लागू करने का सुझाव देते हैं। वे पशु स्वास्थ्य, पोषण और प्रजनन की निगरानी के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करने और संसाधनों के उपयोग को अनुकूलित करने की भी सलाह देते हैं।

भारत में मजबूत कोल्ड चेन इंफ्रास्ट्रक्चर का अभाव है। परिवहन और भंडारण के दौरान दूध की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए सरकार को इसमें निवेश करना चाहिए। कई अध्ययन डेटा प्रबंधन, आपूर्ति श्रृंखला ट्रैकिंग और वित्तीय प्रबंधन के लिए डिजिटल टूल अपनाने की सलाह देते हैं।

पशुपालन में सुधार महत्वपूर्ण है। कृत्रिम गर्भाधान और भ्रूण स्थानांतरण जैसी वैज्ञानिक प्रजनन तकनीकों को बढ़ावा देने से पशुधन की आनुवंशिक गुणवत्ता में सुधार हो सकता है। नुकसान को कम करने के लिए प्रभावी रोग नियंत्रण और टीकाकरण कार्यक्रमों की आवश्यकता है। दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए फ़ीड और चारे की गुणवत्ता और उपलब्धता में सुधार करना आवश्यक है।

किसानों का सशक्तिकरण महत्वपूर्ण है। आधुनिक कृषि पद्धतियों, पशुपालन और व्यवसाय प्रबंधन पर डेयरी किसानों को प्रशिक्षण प्रदान करना आवश्यक है। डेयरी सहकारी समितियों को मजबूत करने से किसान सशक्त हो सकते हैं और सामूहिक सौदेबाजी को सुविधाजनक बना सकते हैं।

उन्नत तकनीक के साथ प्रसंस्करण संयंत्रों को उन्नत करके डेयरियों का आधुनिकीकरण उत्पाद की गुणवत्ता और दक्षता में सुधार कर सकता है। पनीर, दही और मक्खन जैसे मूल्यवर्धित डेयरी उत्पादों के उत्पादन को प्रोत्साहित करने से लाभप्रदता बढ़ सकती है। दूध और डेयरी उत्पादों की सुरक्षा और शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए अभिनव पैकेजिंग और कठोर गुणवत्ता नियंत्रण उपाय आवश्यक हैं। आईएसओ 22000 जैसे अंतरराष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मानकों का अनुपालन करने से बाजार तक पहुंच प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।

सहकारी विशेषज्ञ अजय दुबे कहते हैं, "नई तकनीक विकसित करने और डेयरी फार्मिंग प्रथाओं में सुधार करने के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश करें। डेयरी उद्योग को समर्थन देने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में सड़क, बिजली आपूर्ति और पशु चिकित्सा सेवाओं जैसे बुनियादी ढांचे का विकास करें।"


24 नवंबर 24

[24/11, 1:07 pm] Brij Khandelwal, PR/Media: मथुरा में यमुना के किनारों को हरा-भरा बनाना है व्यवसाई प्रदीप बंसल के हरित अभियान का लक्ष्य


बृज खंडेलवाल द्वारा 


पिछले साल, राष्ट्रीय हरित अधिकरण के आदेश के बाद, मथुरा जिला प्रशासन ने यमुना के डूब क्षेत्र के मैदानों पर अतिक्रमण के रूप में पहचाने गए कई पक्के घाटों को ध्वस्त कर दिया गया था। स्थानीय कार्यकर्ताओं ने अनधिकृत संरचनाओं को उजागर करते हुए एक याचिका दायर की थी। शुरुआती प्रतिरोध के बावजूद, यमुना मिशन के रिवरफ्रंट को हरा-भरा बनाने के प्रयास निरंतर जारी रहे हैं।

यमुना मिशन, जिसे स्थानीय व्यवसायी प्रदीप बंसल ने 2015 में लॉन्च किया था, नदी के किनारों को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। मिशन के अथक काम की वजह से मथुरा में साफ-सुथरे घाट और कायाकल्प हुआ है। महीनों तक, जेसीबी मशीनों, ट्रैक्टरों और कई श्रमिकों ने कोविड लॉकडाउन के दौरान भी घाटों की सफाई की और गाद निकाली।

आज, मथुरा में यमुना साफ दिखती है और घाट पानी से भरे हुए हैं, इसका श्रेय गोकुल बैराज को जाता है। हालाँकि, नदी अभी भी बढ़ते प्रदूषकों और झाग के साथ चुनौतियों का सामना कर रही है। यमुना मिशन के बहुआयामी दृष्टिकोण में बंजर भूमि को हरा-भरा करना, अपशिष्ट जल उपचार प्रणालियों को लागू करना और नियमित सफाई अभियान शामिल हैं। इन पहलों का प्रभाव पानी की बेहतर गुणवत्ता, बढ़ी हुई जैव विविधता और नदी के सौंदर्य आकर्षण में वृद्धि के रूप में स्पष्ट है। प्रदीप बंसल के दृष्टिकोण ने पर्यावरण कार्यकर्ताओं और नीति निर्माताओं को इसी तरह की हरित पहल अपनाने के लिए प्रेरित किया है। यमुना के प्रति उनका समर्पण सतत विकास और पारिस्थितिकी बहाली के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य करता है। यमुना मिशन ने गोवर्धन परिक्रमा मार्ग में कई पैच को भी हरा-भरा किया है और कई पवित्र तालाबों को बचाया है। स्वयंसेवक नियमित रूप से परिक्रमा मार्ग की सफाई करते हैं और कचरे को लैंडफिल साइटों पर स्थानांतरित करते हैं। मिशन की सफलता ने पर्यावरणविदों का ध्यान आकर्षित किया है जो अब इस प्रयोग को अन्य क्षेत्रों में दोहराना चाहते हैं। प्रदीप बंसल ने कहा, "हमें विभिन्न समूहों और कार्यकर्ताओं से समर्थन मिल रहा है। मथुरा से, हम धीरे-धीरे वृंदावन की ओर बढ़ रहे हैं, नालों को मोड़ रहे हैं और उन्हें यमुना में गिरने से रोक रहे हैं। हम लोगों को हमारे तुलसी वन में आने और पौधे लगाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।" 

यमुना मिशन के कार्य शब्दों से कहीं अधिक प्रभावशाली हैं, जो देश भर में समर्थकों का एक मजबूत आधार तैयार कर रहे हैं। हर साल, लाखों श्री कृष्ण भक्त ब्रज मंडल में आते हैं और वृंदावन में पवित्र नदी की पूजा परिक्रमा करते हैं। यमुना मिशन जैसी परियोजनाएँ भविष्य के लिए आशा जगाती हैं, जिसका उद्देश्य नदी की महिमा को बहाल करना और आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वच्छ, हरित वातावरण सुनिश्चित करना है।

यदि आप विश्राम घाट से कंस किला और मसानी क्षेत्र में यमुना तट के किनारे चलते हैं, तो आप हरियाली, पेड़ों की कतारों और तुलसी वन को देखकर सुखद आश्चर्यचकित होंगे। मिशन ने यमुना के किनारे बंजर भूमि के विशाल हिस्सों को जीवंत हरे गलियारों में बदल दिया है, जहाँ देशी पेड़ और झाड़ियाँ लगाई गई हैं।

मिशन ने सीवेज को शुद्ध करने और इसे नदी को प्रदूषित करने से रोकने के लिए अभिनव अपशिष्ट जल उपचार प्रणालियों को भी लागू किया है। नियमित सफाई अभियानों ने जमा हुई गाद और मलबे को हटा दिया है, जिससे पानी का प्रवाह और गुणवत्ता में सुधार हुआ है।

इन पहलों का प्रभाव पानी की बेहतर गुणवत्ता, बढ़ी हुई जैव विविधता और नदी के सौंदर्य में वृद्धि के रूप में स्पष्ट है। कभी प्रदूषित रही यमुना अब मथुरा के लोगों के लिए गर्व का स्रोत बन गई है। प्रदीप बंसल की दृष्टि स्थानीय स्तर से आगे तक फैली हुई है, जो पर्यावरण कार्यकर्ताओं और नीति निर्माताओं को इसी तरह की हरित पहल अपनाने के लिए प्रेरित करती है। यमुना के प्रति उनका समर्पण सतत विकास और पारिस्थितिकी बहाली के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य करता है

[24/11, 1:10 pm] Brij Khandelwal, PR/Media: क्या पत्रकार को एक्टिविस्ट होना चाहिए?

उभरते सोशल मीडिया ने संपादक की भूमिका पर सवाल उठाए।


बृज खंडेलवाल द्वारा 


लंबे समय से क्लासिकल जर्नलिज्म के गुरु कहते आ रहे हैं कि जर्नलिस्ट्स को न तो किसी के पक्ष में बोलना चाहिए और न किसी के विरोध में। मतलब जर्नलिस्ट को ‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ के सिद्धांत पर चलना चाहिए। लेकिन हाल के वर्षों में हमारे देश की मीडिया बेवजह की बहस में पड़कर विभिन्न मुद्दों पर लगातार पक्षपातपूर्ण रवैया अपना रही है। मीडिया की इस करतूत पर जनता की नजरें भी हैं। मीडिया ट्रायल या फिर मीडिया द्वारा ट्रायल आम बात हो गई है। अधिकांश मामलों में मीडिया द्वारा लिए गए शीघ्र निर्णय से पीड़ित को अपना पक्ष रखने का अवसर तक नहीं मिलता है। अक्सर टेलिविजन पर चैट शो के दौरान एंकर्स पीड़ित के ऊपर अपनी इच्छाओं (जो चाहते हैं) को थोपते हैं। साथ ही, वे पूर्वाग्रह से ग्रस्त अपने विचारों को भी उन पीड़ितों पर लादते हैं।

अगर अपको सही और गलत में से चुनना हो, तो आप न्यूट्रल (तटस्थ) कैसे रह सकते हैं? यह सवाल है सोशल कॉमेंट्रेटर पारस नाथ चौधरी का। उनका कहना है कि भारत में पहले समाचारपत्र के जन्म हिकी के गजट से लेकर आज तक "भारतीय मीडिया हमेशा ही विरोधात्मक भूमिका में रही है। वह एक गैप को भरने के साथ प्रबुद्ध विपक्ष के रूप में भी काम करती रही है। भारतीय समाचार पत्रों ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय अहम भूमिका निभाई। खासतौर पर वर्नाक्यूलर प्रेस ने। तब से लेकर आज तक यह परंपरा चलती आ रही है।"

एक सेमिनार ‘कैन ऐक्टिविस्ट मीडिया बी रिस्पॉन्सिबल’ में भाषण करते हुए पूर्व एडिटर शेखर गुप्ता ने कहा था कि जर्नलिज्म धैर्य रखने वाला पेशा है। सच्चाई तक पहुंचने के लिए जांच की जरूरत होती है, न कि एक्टिविज्म की। एक्टिविस्ट मीडिया गैर जिम्मेदार मीडिया है, जिससे बचना चाहिए। अगर चिंता होनी चाहिए, तो स्टोरी के ऊपर सक्रियता को लेकर, उसके तह में जाने को लेकर।

दरअसल पत्रकारिता या तो अच्छी होती या खराब। एक्टिविज्म या नॉन एक्टिविज्म जैसी कोई चीज नहीं होती। अगर अच्छी पत्रकारिता के फलस्वरूप कोई नतीजा आता है तो ये 'बाइप्रोडक्ट' है। अपवादों को छोड़कर पत्रकारों को अपनी स्टोरी के परिणामों की चिंता नहीं करनी चाहिए। जैसे ही आप परिणामों की चिंता करने लगते हैं, स्टोरी दूषित हो जाती है और आप एक एजेंडा फॉलो करना शुरू कर देते हैं।

पत्रकारिता के लिए सबसे बड़ा जहर वो पत्रकार, संपादक और मालिक हैं जिनका एक एजेंडा है और जो एक नजरिया प्रमोट करते रहते हैं। इस तरह का एक्टिविज्म कहीं से भी पत्रकारिता नहीं होता।

हालांकि इस विषय पर दिग्गज पत्रकार अलग नजरिया रखते हैं। उन्हें एक्टिविस्ट मीडिया से कोई दिक्कत नहीं है। उनके मुताबिक पत्रकारिता के पेशवर मानकों को गिराने का काम दरअसल 'सुपारी जर्नलिज्म' करती है। 'सुपारी जर्नलिज्म' पहले से तय एजेंडे के साथ, आधा अधूरे तथ्यों और सनसनी फैलाती बातों के आधार पर किसी खास संस्था-व्यक्ति को टारगेट करने की प्रवृत्ति है।

लखनऊ के एक्टिविस्ट राम किशोर कहते हैं कि मीडिया के नए मालिक अपनी हितों को साधने और निर्णयों को प्रभावित करने के लिए मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं। इससे मीडिया की विश्वसनीयता को लंबे समय के लिए कायम नहीं रखा जा सकता है।

स्क्रीनिंग और फिल्टरिंग की प्रक्रिया का दम घुट रहा है। आज कोई भी जर्नलिस्ट बन सकता है। चाहे उसमें प्रतिभा और पैशन हो या न हो। इससे कंटेंट की गुणवत्ता प्रभावित होती है। सीनियर जर्नलिस्ट अक्सर युवाओं की प्रतिभा निखारने से हिचकिचाते हैं, क्योंकि आजकल हर युवा पत्रकार के शॉर्टकट प्रक्रिया से आगे पहुंचने की जल्दी रहती है। आज की गला काट प्रतिस्पर्धा में ब्रेकिंग-न्यूज-सिंड्रोम खबरों की विश्वसनीयता से खेल रहा है। बिना जांच और सत्यापन के आधा सच खबरें प्रसारित की जाती हैं। वैसे, समाज पर सूचना या खबर को लेकर कम्युनिकेशन गुरु मार्शल मैक्लुहान के "all-at-once-ness" गहरा प्रभाव देखा जा सकता है।

हम देख रहे हैं कि मीडिया में पतन का कारण ज्यादातर संपादक नाम की संस्था की भूमिका और नियंत्रण के कमजोर पड़ने की वजह से हुआ है। संपादकीय विभाग के विषय में नीतिगत मामलों को अक्सर एडवरटाइजमेंट मैनेजर्स द्वारा प्रभावित किया जाता है। अनुभवी पत्रकार भी महसूस कर रहे हैं कि आज के परिदृश्य में जब वैकल्पिक मीडिया एक बड़े खिलाड़ी के रूप में उभर रहा है, ऐसे में कई अनुभवी पत्रकारों का मानना है कि कि अब संपादकीय हस्तक्षेप और संपादक की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।

[24/11, 1:10 pm] Brij Khandelwal, PR/Media: टीटीजेड फेल, आगरा प्रदूषण की भट्टी में 

बृज खंडेलवाल द्वारा

1994 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आगरा को ताजमहल और अन्य धरोहरों के लिए सुरक्षित बनाने के लिए हस्तक्षेप करने के बाद एक चौथाई सदी से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन आशा के अनुरूप परिणाम सामने नहीं आ रहे हैं। संसद के एक अधिनियम द्वारा गठित ताज ट्रेपेज़ियम ज़ोन प्राधिकरण प्रदूषण को नियंत्रित करने और जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने में बुरी तरह विफल रहा है।

स्थानीय पर्यावरणविदों ने मांग की है कि टीटीजेड प्राधिकरण के अधिकारी डॉ. एस. वरदराजन समिति की सिफारिशों पर फिर से विचार करें, हितधारकों के सहयोग से टीटीजेड में सभी वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण निवारण परियोजनाओं का सामाजिक ऑडिट करें। यह अभ्यास समय की मांग है ताकि दिशा सुधार उपाय शुरू किए जा सकें।

हरित कार्यकर्ताओं ने यातायात की भीड़, सड़कों की खराब गुणवत्ता, अतिक्रमण, विभिन्न एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी और स्थानीय लोगों में यातायात के प्रति सामान्य रूप से कम जागरूकता के कारण ताज शहर में बढ़ते वायु प्रदूषण की ओर ध्यान आकर्षित किया है।

पर्यावरणविद् डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, "यह यातायात से गतिशीलता प्रबंधन की ओर संक्रमण का सही समय है। हमारा ध्यान मशीनों या वाहनों पर नहीं, बल्कि इंसानों पर होना चाहिए। कई संस्थानों द्वारा किए गए अध्ययनों से संकेत मिलता है कि आगरा में निजी वाहनों का उपयोग बड़े शहरों की तुलना में अधिक बढ़ेगा। हालांकि यह निश्चित रूप से एक लाभ है कि वर्तमान में अधिक लोग आवागमन या पैदल चलने के लिए बसों और गैर-मोटर चालित वाहनों का उपयोग करते हैं, जिससे वायु प्रदूषण और शहरी गतिशीलता को प्रबंधित करने में मदद मिलती है, दुर्भाग्य से, यह 'पैदल और साइकिल वाला शहर' अब कारों और दोपहिया वाहनों की ओर तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि सार्वजनिक परिवहन अपर्याप्त और मांग के दबाव के बराबर नहीं है।" सभी हालिया अध्ययनों से पता चलता है कि परिवेशी वायु में घातक कणों का स्तर बहुत अधिक है: फिरोजाबाद, आगरा, मथुरा में PM10 का उच्चतम महत्वपूर्ण स्तर तीन गुना अधिक है। NO2 में वृद्धि की प्रवृत्ति दिखाई दे रही है; SPM और RSPM का स्तर अनियंत्रित रूप से बढ़ रहा है। कारों और दोपहिया वाहनों की संख्या पैदल और साइकिल यात्राओं की संख्या को पार कर गई है। शहर टिपिंग पॉइंट को पार करने लगा है। लगभग सभी सड़कों पर यातायात की भीड़ के कारण आगरा बहुत अधिक कीमत चुका रहा है। ट्रैफिक जाम से ईंधन की बर्बादी, प्रदूषण और गंभीर आर्थिक नुकसान होता है। पीक ऑवर्स के दौरान सामान्य आवागमन का समय काफी बढ़ गया है। कई मुख्य सड़कों पर, यातायात की मात्रा निर्धारित क्षमता और सड़कों की सेवा स्तर से अधिक हो गई है।

अधिक सड़कें बनाना इसका समाधान नहीं है। दिल्ली को ही देख लीजिए। इसमें 66 से अधिक फ्लाईओवर हैं, एक व्यापक सड़क नेटवर्क है, लेकिन पीक ऑवर्स में यातायात की गति 15 किलोमीटर प्रति घंटे से कम हो गई है। दिल्ली में कारें और दोपहिया वाहन 90 प्रतिशत सड़क स्थान घेरते हैं, लेकिन यात्रा की मांग का 20 प्रतिशत से भी कम पूरा करते हैं।

अभी तक आगरा में पैदल और साइकिल से चलने वालों की हिस्सेदारी 53 प्रतिशत है। कानपुर में यह 64 और वाराणसी में 56 प्रतिशत है। इसे बढ़ाने के लिए नीतिगत समर्थन की आवश्यकता है।

महानगरों की तुलना में आगरा में कुल मोटर चालित परिवहन में निजी वाहनों के उपयोग की हिस्सेदारी अपेक्षाकृत अधिक है। आगरा में निजी वाहनों की हिस्सेदारी 48 प्रतिशत, वाराणसी में 44 प्रतिशत और कानपुर में 37 प्रतिशत है।

राष्ट्रीय स्तर पर, 70 प्रतिशत से अधिक निवेश फ्लाईओवर और सड़क चौड़ीकरण सहित कार-केंद्रित बुनियादी ढांचे में किया गया है, जबकि पैदल यात्री और साइकिल खंडों में निवेश वांछित पैमाने पर नहीं है।

सड़क की लंबाई का बहुत बड़ा हिस्सा सड़क पर पार्किंग के दबाव में आता है, लगभग 50 प्रतिशत। इससे भीड़भाड़ और प्रदूषण होता है। नई कार पंजीकरण के लिए आगरा में 14, लखनऊ में 42 और दिल्ली में 310 खेतों के बराबर भूमि की मांग पैदा होती है। जमीन कहां है?

उत्तर प्रदेश में, वाराणसी और कानपुर में तुलनात्मक रूप से बहुत कम वाहन हैं, लेकिन यहां भीड़भाड़ का स्तर दिल्ली के करीब है;

चंडीगढ़ की तुलना में कानपुर, वाराणसी और आगरा में वॉकेबिलिटी इंडेक्स रेटिंग कम है, जबकि इस इंडेक्स पर चंडीगढ़ का मूल्य सबसे अधिक है;

आगरा में पटना, वाराणसी की तरह सड़कों पर गैर-मोटर चालित यातायात अधिक है, धीमी गति से चलने वाले वाहन अधिक हैं;

आगरा में यातायात की मात्रा सड़कों की डिज़ाइन की गई क्षमता को पार कर गई है, जिन पर भारी अतिक्रमण है और सतह की गुणवत्ता भी खराब है।

सभी आसान विकल्प समाप्त हो चुके हैं। कठोर उपायों का समय आ गया है। निजी वाहनों का उपयोग कम करना, सार्वजनिक परिवहन को उन्नत करना, पैदल चलना और साइकिल चलाना, तथा वाहन प्रौद्योगिकी में तेजी लाना हमारे लिए बचे हुए मुख्य विकल्प हैं। इसलिए, सरकार को लोगों के लिए योजना बनानी चाहिए, न कि वाहनों के लिए। सार्वजनिक परिवहन, साइकिल चलाने और पैदल चलने के लिए सड़कें डिजाइन करनी चाहिए, न कि केवल निजी मोटर चालित वाहनों के लिए। यह शहर के लिए जानलेवा प्रदूषण, अपंग भीड़, महंगे तेल की खपत और वाहनों के कारण होने वाले ग्लोबल वार्मिंग प्रभावों को कम करने का विकल्प है। छोटी दूरी आमतौर पर पैदल या साइकिल का उपयोग करके तय की जानी चाहिए, यहाँ तक कि बैटरी से चलने वाले वाहन भी बेहतर विकल्प हैं। स्कूलों को छात्रों को घरों से लाने-ले जाने के लिए बसों का बेड़ा तैनात करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह बसों और सार्वजनिक परिवहन के अन्य साधनों पर सड़क करों और विभिन्न अन्य शुल्कों में कटौती करके किया जा सकता है। इस समय अधिकांश भारतीय राज्यों में, बसें निजी कारों के बराबर या उससे अधिक भुगतान करती हैं। इस नीति को बदलने की आवश्यकता है।

[24/11, 1:10 pm] Brij Khandelwal, PR/Media: हेरिटेज week starts

न फ़क़्र है, न जुड़ाव

कैसे बचेगी विरासत?

_____________________

आगरा के लोग विरासत को villain विलेन मानते हैं!!

______________________

सांस्कृतिक विस्मृति के लिए जागृति का आह्वान

________________________

बृज खंडेलवाल द्वारा 

_____________________

विश्व विरासत दिवस, 19 नवंबर को स्मरण का प्रतीक है, जो हमारी सांस्कृतिक विरासतों को संरक्षित करने और उनकी रक्षा करने के हमारे कर्तव्य की एक कठोर याद दिलाता है। फिर भी, जैसे-जैसे आगरा के राजसी शहर पर सूरज उगता है, एक दुखद सच्चाई सामने आती है - नागरिकों ने अपनी विरासत को त्याग दिया है, अद्भुत मुगल स्मारक सामूहिक उदासीनता के शिकार हैं।

आगरा, जो स्मारकीय भव्यता का खजाना है, जो दुनिया भर के पर्यटकों को आकर्षित करता है, आध्यात्मिक शून्यता में डूबा हुआ है, अपनी समृद्ध विरासत से बेखबर है। जब दुनिया विरासत की पवित्रता का जश्न मनाती है, आगरा की सड़कें उदासीनता से गूंजती हैं, इसकी ऐतिहासिक संपदा में निहित विरासत और समृद्धि पर कोई चर्चा नहीं होती।

यमुना नदी, जो कभी इतिहास की जीवन रेखा थी, प्रदूषण के बीच बह रही है, परित्यक्त और भूली हुई है। डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य, जो जंगल के सन्नाटे  में एक उम्मीद की आवाज़ हैं, इस खामोश क्षय पर शोक व्यक्त करते हैं, विरासत के संरक्षकों से अपनी नींद से जागने और संरक्षण की आवश्यकता को अपनाने का आग्रह करते हैं।

यह हृदय विदारक कहानी ताजमहल से आगे तक फैली हुई है, जहाँ कम पॉपुलर  चमत्कार गुमनामी में पड़े हैं, पोषण की कमी के कारण सुर्खियों से दूर हैं। शहर के स्थापत्य रत्न खुद को अतिक्रमण से घुटते हुए पाते हैं, जो उनकी रक्षा के लिए नियुक्त किए गए संरक्षकों की उपेक्षा की कहानियाँ सुनाते हैं।

यह दुःख और उपेक्षा की कहानी है, जहाँ विरासत को आर्थिक प्रगति में बाधा डालने वाली बाधा के रूप में देखा जाता है, न कि शहर की आत्मा को समृद्ध करने वाले अमूल्य खजाने के रूप में। एक ऐसी जगह जहाँ पर्यटन फलता-फूलता है, स्थानीय लोग खुद को अपने इतिहास से अलग पाते हैं, मुगल रत्न के उत्तराधिकारी होने के गौरव से रहित।

आगरा में आम धारणा यह है कि ताजमहल और स्मारकों के लिए प्रदूषण के खतरे के कारण उद्योगों और रोजगार के अवसरों को भारी नुकसान हुआ है। दिसंबर 1996 में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले ने सैकड़ों उद्योगों को हमेशा के लिए बंद करने पर मजबूर कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक गतिविधियाँ बाधित हुईं। ज़्यादातर लोगों को लगता है कि राज्य में मौजूदा सत्तारूढ़ व्यवस्था मुगल आगरा और उसके इतिहास के खिलाफ़ काफ़ी पक्षपाती है। इसके अलावा, स्थानीय पर्यटन निकाय, होटल व्यवसायी और ट्रैवल एजेंट, स्थानीय नागरिकों के दिलों में गर्व की भावना पैदा करने के लिए शायद ही कभी गतिविधियाँ आयोजित करते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण औपचारिक रूप से कुछ एक्टिविटीज  आयोजित जरूर  करता है, लेकिन सांस्कृतिक बंधनों को मज़बूत करने के लिए कुछ और नहीं करता है।

विरासत संरक्षणवादी डॉ. मुकुल पंड्या कहते हैं कि संचार की खाई गहरी और अंधेरी है। आर्थिक दबावों और पर्यटन की कर्कशता की छाया में, आगरा के नागरिकों पर थकान की भावना छाई हुई है, जो उनके चारों ओर मौजूद रहस्यमय अतीत से उनका जुड़ाव खत्म कर रही है। ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व की सिम्फनी मौन बनी हुई है, जो लोगों को घेरने वाले अस्तित्व के दैनिक संघर्षों में डूबी हुई है।""

दुनिया भर में हमारी  विरासत के सार को याद किया जा रहा है, ऐसे में आगरा और उसके निवासियों के लिए यह जरूरी है कि वे इस आह्वान पर ध्यान दें, उदासीनता से ऊपर उठें और अपने गौरवशाली अतीत के अनुरूप गौरव और जुनून को पुनः प्राप्त करें। 

बगैर इतिहास के कोई भी समाज स्थिर और जमीन से जुड़ा नहीं रह सकता। समय आ गया है कि संप्रेषण की इस खाई को पाटा जाए, जागरूकता को बढ़ावा दिया जाए और गर्व की लौ को प्रज्वलित किया जाए, क्योंकि हमारी विरासत के संरक्षण में ही हमारी पहचान, हमारे सार, हमारी विरासत का संरक्षण निहित है।

[24/11, 1:11 pm] Brij Khandelwal, PR/Media: विश्व खुड्डी दिवस 19 नवंबर 

____________________

"आगरा की गरिमा की लड़ाई: 

स्वच्छ और सुरक्षित सार्वजनिक शौचालयों के लिए नागरिकों की हताश पुकार"

_____________________


बृज खंडेलवाल द्वारा


अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और प्रतिष्ठित ताजमहल के बीच, व्यस्त शहर आगरा में, सड़कों पर एक खामोश लेकिन जरूरी लड़ाई चल रही है - गरिमा की लड़ाई, स्वच्छ और सुरक्षित सार्वजनिक शौचालयों के रूप में बुनियादी मानवाधिकारों की लड़ाई।

खुले में शौच से मुक्त होने के बावजूद, शहर में हजारों नए शौचालयों के निर्माण के बावजूद, कठोर वास्तविकता स्वच्छता से कोसों दूर है। आगंतुकों और स्थानीय लोगों को समान रूप से जीर्ण-शीर्ण सुविधाओं, पानी और स्वच्छता से रहित, शानदार स्मारकों की छाया में छिपे हुए एक भयावह दृश्य का सामना करना पड़ता है।

मदद के लिए पुकार पक्की सड़कों से गूंजती है, क्योंकि सामाजिक कार्यकर्ता और पर्यावरणविद हर किलोमीटर पर मुफ्त, स्वच्छ शौचालयों की गुहार लगाते हैं। उपेक्षा की बदबू हवा में बनी हुई है, क्योंकि घनी बस्तियों में, उपेक्षित क्षेत्रों में लोग राहत के लिए सुनसान कोनों, रेलवे ट्रैक और खुली नालियों का सहारा लेते हैं, जो आगरा की भव्यता के बिल्कुल विपरीत है।

देशी-विदेशी दोनों ही तरह के पर्यटक इस अशोभनीय दृश्य को देखते हैं, बुनियादी सुविधाओं की कमी के कारण ऐतिहासिक चमत्कारों के प्रति उनकी प्रशंसा धूमिल हो जाती है। शहर का ऐतिहासिक आकर्षण अस्वच्छ स्थितियों और नागरिक जिम्मेदारी की कमी की छाया में डूबा हुआ है। अराजकता के बीच, शहर की गहराई से एक दलील गूंजती है - नागरिकों को स्वच्छ टॉयलेट्स जैसी बुनियादी सेवा के लिए टोल क्यों देना चाहिए? इतिहास में समृद्ध लेकिन स्वच्छता में खराब शहर का विरोधाभास प्रगति और विकास के मूल सार को चुनौती देता है। जैसे ही ताजमहल पर सूरज डूबता है, सम्मान की लड़ाई जारी रहती है, मानसिकता और बुनियादी ढांचे में क्रांति की मांग होती है। आधुनिक, सुलभ सार्वजनिक शौचालयों की आवश्यकता केवल सुविधा नहीं है, बल्कि सम्मान का प्रतीक है, अपने लोगों और आगंतुकों के प्रति शहर की प्रतिबद्धता का प्रतीक है। स्वच्छ और सुरक्षित सार्वजनिक शौचालयों के लिए आगरा का आह्वान केवल एक जरूरत ही नहीं है - यह सम्मान को पुनः प्राप्त करने, अपने अतीत की छाया और एक उज्जवल, स्वच्छ भविष्य के वादे के बीच फंसे शहर की कहानी को फिर से लिखने की पुकार है। हालाँकि शहर को खुले में शौच से मुक्त (ODF) घोषित कर दिया गया है, और 16,000 से ज़्यादा नए शौचालय बनाए गए हैं, लेकिन समस्या यह है कि ज़्यादातर शौचालयों में पानी नहीं है और उन्हें शायद ही कभी साफ किया जाता है। आगंतुक कहते हैं, "अगर आप किसी शौचालय में जाते हैं, तो आप उसका इस्तेमाल करने के बाद एक या दो बीमारियाँ लेकर लौट सकते हैं।" "बहुत से पर्यटक दबाव से राहत पाने के लिए होटलों की ओर भागते हैं, हालांकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने स्मारकों पर सार्वजनिक शौचालय उपलब्ध कराए हैं। लेकिन अगर कोई पर्यटक खुद ही हेरिटेज शहर के अंदरूनी हिस्सों को देखने के लिए बाहर निकलता है, तो उसे गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ेगा।

एक बड़ी समस्या मानसिकता है। लोग अभी भी "खुले में शौच करने के आदी हैं।" सरकारी एजेंसियों ने सैकड़ों नए शौचालय बनाए हैं, लेकिन लोग उनका इस्तेमाल नहीं करते। इसके बजाय, वे खुली जगहों की तलाश करते हैं, शायद हमारे निरंतर ग्रामीण उन्मुखीकरण के कारण।

स्थानीय लोगों को खुले में शौच करने के लिए प्रेरित करने वाले कारकों का विश्लेषण करते हुए, डॉ. मुकुल पंड्या ने कहा, "यह एक सांस्कृतिक विशेषता थी। अधिकांश लोग ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं। वे अभी भी आराम के लिए खुली जगहों को पसंद करते हैं।"

आगरा, अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और प्रतिष्ठित ताजमहल के घर के लिए प्रसिद्ध है, हर साल लाखों पर्यटकों को आकर्षित करता है। ऐसे विरासत शहर में स्वच्छ और सुरक्षित सार्वजनिक शौचालयों की आवश्यकता कई कारणों से महत्वपूर्ण है:

आगंतुकों की एक बड़ी संख्या अपनी यात्रा के दौरान सार्वजनिक शौचालयों पर निर्भर करती है। स्वच्छ और सुरक्षित सुविधाएं समग्र आगंतुक संतुष्टि और आराम को बढ़ाती हैं, सकारात्मक अनुभव और बार-बार आने को प्रोत्साहित करती हैं, कहते हैं गोपाल सिंह, आगरा हेरिटेज ग्रुप के।

दूसरा, स्वच्छता सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए सर्वोपरि है। स्वच्छ सार्वजनिक शौचालय बीमारियों के प्रसार को रोकने और निवासियों और आगंतुकों दोनों के लिए स्वस्थ रहने की स्थिति बनाए रखने में मदद करते हैं।

पर्यावरणविद् देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं: अभी, शहर में शौचालयों की कमी है और इस कारण से आगंतुकों की नज़र में शहर की छवि धूमिल हो रही है।" 

सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, "आगरा में स्वच्छ और सुरक्षित सार्वजनिक शौचालयों की लड़ाई सिर्फ़ स्वच्छता के बारे में नहीं है; यह सम्मान, स्वास्थ्य और अपने निवासियों और आगंतुकों के प्रति शहर की प्रतिबद्धता के बारे में है। शहर के खुले में शौच मुक्त दर्जे के बावजूद सार्वजनिक शौचालयों की वर्तमान स्थिति नीति और व्यवहार के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर को उजागर करती है।"

स्वच्छ और सुरक्षित सार्वजनिक शौचालयों के लिए आगरा का आह्वान सम्मान को पुनः प्राप्त करने और अपने अतीत की छाया और एक उज्जवल, स्वच्छ भविष्य के वादे के बीच फंसे शहर की कहानी को फिर से लिखने की पुकार है। यह नीति निर्माताओं, नागरिक अधिकारियों और समुदाय के लिए एक साथ आने और इस दबावपूर्ण आवश्यकता को संबोधित करने के लिए कार्रवाई का आह्वान है।

[24/11, 1:13 pm] Brij Khandelwal, PR/Media: कानूनी तौर पर बच्चे गोद लेने वालों की कतार लंबी हो रही है। बच्चे कम हो रहे हैं। अनाथालयों में संख्या घट रही है। चाइल्ड ट्रैफिकिंग पर भी नियंत्रण हुआ है। कृत्रिम गर्भाधान से बेऔलाद दंपत्तियों को संतान सुख प्राप्त हो रहा है। 

भारत सरकार की एजेंसी CARA में 28000 रजिस्टर्ड गोद लेने वालों के लिए मात्र 2200 बच्चे, 2024 जुलाई में उपलब्ध थे।


एक रिपोर्ट...


लुप्त होती उम्मीद: 

गोद लेने को बच्चे नहीं



ब्रज खंडेलवाल द्वारा


कहीं झाड़ी में, कहीं कूड़े दान में, कहीं अनाथालय के बाहर लटकी डलियों में, अब बच्चों के चीखने रोने की आवाज कम सुनाई  दे रही है। पुरानी फिल्मों में अवैध संतानों के संघर्ष की कहानियां अब रोमांचित नहीं करतीं।

भारत में, लाखों उमंग और आशा से भरे दिलों में एक खामोश मायूसी सामने आ रही है - कानूनी रूप से गोद लेने के लिए उपलब्ध बच्चों की संख्या में चौंकाने वाली गिरावट ने अनगिनत उम्मीदों पर ग्रहण लगा दिया है। अनाथालय और चिल्ड्रंस होम्स, जो कभी परित्यक्त बच्चों की मासूम हंसी से भरे रहते थे, अब एक परेशान करने वाली "आपूर्ति की कमी" से जूझ रहे हैं। 

कृत्रिम गर्भाधान (आईवीएफ), बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं, कम खोते बच्चे, सुधरी शिक्षा व्यवस्था, मिड डे मील कार्यक्रम, राज्यों की कल्याण कारी योजनाएं, सामाजिक बदलाव और जागरूकता में वांछित असर दिखाने लगे हैं।

अविवाहित मातृत्व, बच्चे के पालन-पोषण और प्रजनन स्वास्थ्य के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में एक नाटकीय बदलाव ने  एक नई लहर को जन्म दिया है, जिससे कई संभावित दत्तक माता-पिता लंबे समय तक प्रतीक्षा के खेल में फंस गए हैं। अब डॉक्टर्स बता रहे हैं कि निसंतान जोड़े बच्चा पैदा करने के इलाज पर काफी पैसा व्यय कर रहे हैं और नए तकनीकों को स्वीकार कर रहे हैं।

इस  कमी के मूल में सशक्तिकरण की एक कहानी छिपी हुई है - अविवाहित माताएँ, जो कभी कलंक और वित्तीय घबराहट में घिरी रहती थीं, अब मजबूती से खड़ी हैं। अतीत में, सामाजिक निर्णय और समर्थन की कमी के भारी बोझ ने अनगिनत युवा महिलाओं को अपने बच्चों को त्यागने के लिए मजबूर किया, उनके सपने नाजुक कांच की तरह बिखर गए। 

सोशल एक्टिविस्ट पद्मिनी अय्यर के मुताबिक, "लेकिन अब, जैसे-जैसे सामाजिक मानदंड विकसित हो रहे हैं, ये बहादुर महिलाएँ अपने बच्चों को रखने का विकल्प चुन रही हैं, और दृढ़ संकल्प के साथ अपार चुनौतियों का सामना कर रही हैं। एकल अभिभावकत्व की बढ़ती स्वीकार्यता सिर्फ़ एक प्रवृत्ति नहीं है; यह लचीलेपन का एक शक्तिशाली प्रमाण है, जो हमारे विकसित होते समाज में परिवार और मातृत्व के परिदृश्य को फिर से परिभाषित करता है।"

हाल के वर्षों में, भारत ने कानूनी रूप से गोद लेने के लिए उपलब्ध बच्चों की संख्या में उल्लेखनीय गिरावट देखी है। देश भर के अनाथालय और बच्चों के घर "आपूर्ति की कमी" की रिकॉर्ड कर रहे हैं, जिससे संभावित दत्तक माता-पिता के लिए प्रतीक्षा कतारें लंबी हो रही हैं।

इसमें योगदान देने वाला एक कारक निरंतर एड्स जागरूकता अभियानों का प्रभाव है। बढ़ी हुई जानकारी और संसाधनों तक पहुँच ने युवाओं में ज़िम्मेदार यौन व्यवहार को बढ़ावा दिया है, जिससे अनचाहे गर्भधारण में कमी आई है। व्यापक रूप से कंडोम के उपयोग सहित सुरक्षित यौन व्यवहार एक आदर्श बन गया है, जिससे गोद लेने के लिए उपलब्ध शिशुओं की संख्या में और कमी आई है।

अवैध लिंग निर्धारण परीक्षणों का चल रहा मुद्दा भी कमी में एक भूमिका निभाता है। प्रतिबंधित होने के बावजूद, ये परीक्षण होते रहते हैं, जिससे लिंग अनुपात बिगड़ता है और गोद लेने योग्य बच्चों की संख्या कम होती है।

इसके अलावा, बच्चों को गोद लेने की चाहत रखने वाली एकल महिलाओं की संख्या में वृद्धि मातृत्व के बारे में धारणाओं में महत्वपूर्ण बदलाव को दर्शाती है।

सामाजिक कार्यकर्ता इस कमी के लिए कई कारकों को जिम्मेदार मानते हैं। बैंगलोर की एक सामाजिक कार्यकर्ता कहती हैं,  अविवाहित माताएँ अपने बच्चों को रखना चुन रही हैं, युवाओं में यौन स्वास्थ्य के बारे में अधिक जागरूकता, निजी गोद लेने के चैनलों का उदय और अवैध लिंग निर्धारण प्रथाओं के साथ चल रहे संघर्ष, देर से विवाह, लिव-इन रिलेशनशिप, गर्भनिरोधक का बढ़ता उपयोग, परिवार नियोजन कार्यक्रमों की सफलता, छोटे परिवार के मानदंड की स्वीकृति, शहरीकरण का दबाव और जीवनशैली में बदलाव अन्य योगदान देने वाले कारक हैं।""

सामाजिक कार्यकर्ता रानी  कहती हैं, "अविवाहित महिलाएँ, जो पहले सामाजिक-आर्थिक स्थितियों या समाज के डर के कारण अपने शिशुओं को छोड़ देती थीं, अब उन्हें रख रही हैं। एकल महिलाएँ भी बच्चों को गोद ले रही हैं। सुरक्षित सेक्स और कंडोम के इस्तेमाल के साथ-साथ जागरूकता अभियानों ने अवांछित गर्भधारण को कम किया है।" 

लोक स्वर के अध्यक्ष राजीव गुप्ता कहते हैं, "मुझे लगता है कि शहरी लड़कियाँ ज़्यादा सावधानी बरत रही हैं और अगर गर्भवती हैं, तो भ्रूण के लिंग की परवाह किए बिना गर्भपात के लिए जल्दी और चुपचाप (परिवार के अन्य सदस्यों को सूचित किए बिना) चली जाती हैं। मेरा मानना ​​है कि एक और कारक यह है कि अर्थव्यवस्था में आम तौर पर सबसे गरीब स्तरों पर भी सुधार हुआ है, और परिवारों को लगता है कि वे अपने बच्चों का भरण-पोषण कर सकते हैं। साथ ही, यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में भी परिवार आकार को सीमित कर रहे हैं क्योंकि बच्चे वयस्क होने तक जीवित रहते हैं। कई बच्चे पैदा करने की ज़रूरत कम ज़रूरी है। हाल के वर्षों में, आबादी के सभी स्तरों पर परिवार नियोजन स्वैच्छिक हो गया है।"

इस कमी के निहितार्थ बहुआयामी हैं। भावी दत्तक माता-पिता को लंबी प्रतीक्षा अवधि का सामना करना पड़ता है, और कुछ वैकल्पिक, अक्सर अनियमित, गोद लेने के चैनलों पर विचार कर सकते हैं। इससे अवैध गोद लेने और शोषण का जोखिम बढ़ जाता है।

इस कमी को दूर करने के लिए, राज्य सरकारों को अविवाहित माताओं का समर्थन करना चाहिए, उन्हें अपने बच्चों को रखने के लिए सशक्त बनाने के लिए वित्तीय सहायता, परामर्श और संसाधन प्रदान करना चाहिए। स्वास्थ्य विभागों को प्रजनन स्वास्थ्य शिक्षा को बढ़ावा देना चाहिए और अनपेक्षित गर्भधारण को कम करने के लिए जागरूकता अभियान जारी रखना चाहिए।

गोद लिए जाने वाले बच्चों की कमी प्रजनन स्वास्थ्य को बढ़ावा देने, अविवाहित मातृत्व से जुड़े कलंक को कम करने और महिलाओं को सशक्त बनाने में भारत की प्रगति को दर्शाती है। चूंकि भारत इस नए परिदृश्य में आगे बढ़ रहा है, इसलिए अविवाहित माताओं, प्रजनन स्वास्थ्य शिक्षा और गोद लेने के सुधारों के लिए समर्थन को प्राथमिकता देना महत्वपूर्ण है।

No comments:

Post a Comment